तत्कालिक स्थिति - Political Scenario at the time of Persian Attack
छठवीं शताब्दी से लेकर चौथी शताब्दी ईसा पूर्व तक, जिस समय मध्य भारत के राज्य मगध साम्राज्य की विस्तारवादी नीति के शिकार हो रहे थे, पश्चिम-उत्तर भारत में घोर अराजकता एवं अव्यवस्था का वातावरण व्याप्त था, भारत के विभिन्न भागों का राजनीतिक जीवन दुर्बलता थी, इस परिस्थिति में विदेशी आक्रांताओं का ध्यान भारत के इस भूभाग की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक ही था। इसकी परिणति हमें यथाशीघ्र ही भारत पर प्रथम विदेशी आक्रमण के रूप में परिलक्षित होती दिखती है इस आक्रमण का भारतीय जनमानस संस्कृति पर का क्या प्रभाव पड़ा या अध्ययन की दृष्टि से विचारणीय प्रश्न है।
हख़ामनी साम्राज्य की स्थापना एवं आक्रमण : संक्षिप्त परिचय
Establishment of Achaemenid Empire and Attacks on India
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में ईरान का साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर पश्चिम सीमा तक फैला हुआ था। छठवीं शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य साईरस नामक एक व्यक्ति ने हखामनी साम्राज्य की स्थापना की। उसने शीघ्र ही अपने को पश्चिमी एशिया का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा शासक बना लिया उसके साम्राज्य की पूर्वी सीमा भारत को स्पर्श करने लगी। अतः 550 ईसा पूर्व के आसपास साइरस द्वितीय ने प्रथम बार मकरान के रास्ते एवं दूसरी बार काबुल घाटी के रास्ते भारत पर आक्रमण किया। दूसरा ईरानी आक्रमण दारा प्रथम ने किया जिसके पश्चात जरक्सीज, अर्तजरक्सीज प्रथम, अर्तजरक्सीज द्वितीय एवं दारा तृतीय ने शासन किया। अरबेला के निर्णायक युद्ध मे दारा तृतीय को बुरी तरह पराजित किया गया और उसकी विशाल सेना नष्ट भ्रष्ट हो गई। इसी पराजय के साथ भारत से पारसिक आधिपत्य की समाप्ति हो गई। साइरस द्वितीय के विजय के संबंध में एडवर्ड का निष्कर्ष सबसे अधिक तर्कसंगत लगता है "साइरस ने काबुल घाटी तथा हिन्दुकुश विशेष रूप से गंधार कि भारतीय जनजातियों को जीत लिया था।"
इतिहास जानने के साधन - पुरातात्विक एवं साहित्तिक स्रोत
आक्रमण का प्रभाव - Impact of Persian Attack on India
भारत के सीमावर्ती प्रदेशों में पारसिक आधिपत्य किसी न किसी रूप में लगभग दो शताब्दियों तक बना रहा। राजनीतिक दृष्टि से उसका देश पर कोई ठोस प्रभाव नहीं पड़ा परंतु सांस्कृतिक दृष्टि से भारत पर उन्होंने महत्वपूर्ण प्रभाव डालें जो निम्नलिखित है।
तत्कालीन प्रभाव (राजनीतिक कमजोरी)
ईरानी आक्रमण ने पश्चिमोत्तर भारत की राजनीतिक कमजोरी को सिद्ध कर दिया। ईरानियों द्वारा दिखाए गए रास्ते से ही यूनानी, बाख्त्री, शक़, पह्लव आदि ने कालांतर में भारत पर आक्रमण किया।
नए मार्गों का विकास
इस आक्रमण के फलस्वरूप नए मार्ग भी अस्तित्व में आये। पहला मार्ग जेड्रोसिया के विशाल रेगिस्तान से होकर भारत भूमि में प्रवेश करता था। दूसरा मार्ग बैक्ट्रिया, सोग्डियाना तथा काबुल घाटी से होते हुए सिंधु नदी तक पहुंचता था।
आर्थिक प्रभाव
ईरानी आक्रमण के बाद पश्चिम के जल तथा स्थल मार्गो से अधिकाधिक व्यापार होने लगा। व्यापार एवं वाणिज्य के क्षेत्र में भी इस आक्रमण ने महत्वपूर्ण प्रभाव उत्पन्न किए। स्काईलेक्स ने भारत से पश्चिमी देशों तक एक समुद्री मार्ग की खोज की। भारतीय व्यापारी पश्चिमी देशों में गए और उन्होंने प्रचुर धन अर्जित किया। इसका परिणाम शीघ्र ही समृद्धि के रूप में सामने आया। पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में मिलने वाले ईरानी सिक्कों से ईरान के साथ भारत के व्यापार होने की पुष्टि हो जाती है।
सामाजिक प्रभाव
ईरानी आधिपत्य के समय बहुत से ईरानी तथा यूनानी विदेशी लोग भारत के भू-भाग में आ कर बस गए और भारतीय जनता में उनके रक्त का मिश्रण हुआ।
सांस्कृतिक प्रभाव
पारसिक शासन में भारत एवं पश्चिमी एशिया के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान का मार्ग प्रशस्त हुआ। भारतीय विद्वान एवं दार्शनिक पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान से परिचित हुए तथा साथ ही साथ कुछ विदेशी तत्वों जैसे सिक्कों पर लेख नई लिपि का भारत में वृहद स्तर पर प्रारंभ हुआ।
मुद्राशास्त्रीय प्रभाव
जब दारा प्रथम ने सिंध प्रदेश को विजित कर अपने राज्य का विस्तार किया तो वहां पर इस इरानी चांदी के सिक्के 'सिगलोई' का प्रचलन हुआ। यह सिक्का भारत में विदेशी मुद्रा के उद्भव की दृष्टि से विवेचन है।
लिपिशास्त्रीय प्रभाव
ईरान की राजनीतिक वर्चस्व का भारत पर जो सबसे स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है वह है खरोष्ठी लिपि की शुरुआत। पारसिक संपर्क के फलस्वरूप भारत के पश्चिम उत्तर प्रदेश में खरोष्ठी नामक एक नई लिपि का जन्म हुआ जो ईरान आरंभिक लिपि से उत्पन्न हुई थी और या दाएं से बाएं और लिखी जाती थी। मौर्य शासक अशोक के दो अभिलेखों मानसेहरा तथा शाहबाजगढ़ी में खरोष्ठी लिपि का प्रयोग मिलता है। इन प्रदेशों की भाषाएं भी फ़ारसी भाषा से प्रभावित हुई तथा 'दिपि' (राजाज्ञा), निपिष्टि (लिखित) जैसे शब्द देश में प्रयुक्त होने लगे।
प्रशासनिक प्रभाव
मौर्य शासन के विभिन्न तत्वों पर पारसीक प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। मौर्य सम्राटों ने पारसीक सम्राटों की दरबारी शान शौकत तथा कुछ परंपराओं का अनुसरण किया। सम्राट के जन्मदिन पर केश प्रक्षालन की प्रथा इरान से ग्रहण की गई थी।
कलात्मक प्रभाव
कुछ विद्वानों का मानना है कि मौर्यों की कला पर अनेक पारसीक तत्व विद्यमान है जैसे चंद्रगुप्त मौर्य के पाटलिपुत्र के राज्य प्रासाद में अनेक पारसीक तत्व विद्यमान थे इनकी स्तंभ मंडप प्रेरणा भी पारसीक शैली से ली गई है। अशोक के लेखों की प्रारंभिक पंक्तियां वि दारा के लेख "सम्राट के द्वारा इस प्रकार कहा जाता है" से प्रारंभ होती है। कुछ विद्वानों के अनुसार मौर्य युगीन स्तंभों पर घण्टा शीर्ष की कल्पना तथा उसकी चमकदार पॉलिश भी पारसीक तत्वों से ही ग्रहण की गई है। कई विद्वानों ने प्रारंभिक काल में भवन निर्माण कला, मूर्तिकला, अभिलेख लिखवाने की परंपरा पर इरानी प्रभाव को माना है तो कुछ विद्वान इन से आगे बढ़कर इनकी उत्पत्ति को ही ईरानियों की देन मानते हैं।
भविष्यगत प्रभाव
इतिहास का यह मर्म है कि वह भविष्य को एक सुव्यवस्थित आदर्श-अनुरूप मार्ग को खोजने की प्रेरणा देता है। अगर सिकंदर ने भारत पर आक्रमण किया तो ईरानी लोगों के माध्यम से ही भारत की महान संपदा के विषय में कुछ सुनकर प्रेरित हुआ होगा। यही नही, यूनानी आक्रमण से लेकर शक, पह्लव, हुड तथा कालांतर में मुस्लिमों के आक्रमण भी पारसीक आक्रमण का ही भविष्यगत प्रभाव है।
आलोचनात्मक अध्ययन एवं निष्कर्ष
यदि सूक्ष्म दृष्टि से इन उपर्युक्त प्रभाव का आलोचनात्मक अध्ययन किया जाए तो कुछ रोचक एवं नवीन तथ्य सामने आते हैं। भारतीय संस्कृति पर कलात्मक प्रभाव का आलोचनात्मक अध्ययन वासुदेव शरण अग्रवाल की पुस्तक 'भारतीय कला' में अभीनियोजित है तथा सिक्कों की प्राचीनता के रूप में आहत सिक्कों की समानता इरानी सिक्के सिगलोई से स्थापित नहीं की जा सकती क्योंकि दोनों के आकार, प्रकार और भार में पर्याप्त अंतर है। खरोष्ठी लिपि को केवल लिखने की शैली आधार पर अरामेइक लिपि से उद्धृत नहीं माना जा सकता। उपरोक्त अध्ययन के पश्चात यह कहा जा सकता है कि अभी तक मानी जा रही परंपराओं के विपरीत ईरानी आक्रमण का सांस्कृतिक प्रभाव कम होकर राजनीतिक प्रभाव ही प्रभावी रूप से दृष्टिगोचर होता है।