Temple Architecture of Orissa - Introduction, Origin and Characteristics - Hindi

Temple Architecture of Orissa - Introduction, Origin and Characteristics - Deul, Natmandap, Bhogmandap, Bhuvneshwar

उड़ीसा का मंदिर स्थापत्य - परिचय

उड़ीसा का प्राचीन नाम था कलिंग था जिसका उल्लेख खारवेल के हांथी-गुफ़ा अभिलेख में मिलता है। इस राज्य का ऐतिहासिक महत्व अपने प्रकार का अनोखा है। यहां अशोक ने कलिंग युद्ध में हुये नरसंहार को देखने के पश्चात सर्वप्रथम धर्म-विजय की घोषणा की थी। इस महान क्रांतिकारी सम्राट में युद्धविरोधी नीति अपनाकर राजनीति की दिशा बदल डालने की चेष्टा की तथा धम्मविजय के मार्ग पर आगे बढ़ा। यह शांति और सहिष्णुता का अद्भुत प्रमाण है।

कला के क्षेत्र में इसका महत्वपूर्ण योगदान है। उदयगिरी एवं खंडगिरि की प्राचीन शैल-गुफाएँ इसकी पुष्टि करती हैं की सदियों से कुशल शिल्पी यहां की भूमि पर नित्य नूतन श्रृंगार करते हैं। मध्य युग में यहां उत्तरभारतीय आर्य शैली के शिखर युक्त मंदिरों का निर्माण हुआ। यह मंदिर अपनी सौंदर्य, निर्माण-योजना में अनुपम हैं। इन मंदिरों की संख्या प्रभुत है। इसी कारण उड़ीसा को "मंदिरों की नगरी" कहा जाता है। वस्तुतः यहां के अधिकांश मंदिर भुवनेश्वर में स्थित हैं, अतएव "मंदिरों की नगरी" इसे ही कहना उचित होगा। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि यहां के अधिकांश मंदिर सुरक्षित अवस्था में हैं।

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उड़ीसा-शैली की उत्पत्ति

उड़ीसा शैली की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों का मतभेद है। कतिपय विद्वानों का मत है कि यह शैली दक्षिण से पूर्वी क्षेत्रों में आई तथा उड़ीसा उसका केंद्र बना। किंतु पर्सी ब्राउन के अनुसार यह शैली उत्तर भारत से यहां आई। ब्राउन महोदय के अनुसार छठी शताब्दी में चालुक्य राजाओं द्वारा जहां उत्तर भारतीय आर्य शैली के मंदिरों का निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ। किंतु यह तर्क युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। भारतीय मंदिर स्थापत्य के इतिहास से यह स्पष्ट है कि उत्तर भारत के मंदिरों का निर्माण कार्य चालुक्य से बहुत पहले ही प्रारंभ हो चुका था। उदयगिरी, भमरा, तिगवा और देवगढ़ के मंदिर इसके सबल प्रमाण हैं। निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि उड़ीसा शैली दक्षिण भारत की देन है अथवा उत्तर भारत की। इस संबंध में केवल इतना ही कहा जा सकता है कि यह शैली छठी सदी तक विकसित हो चुकी थी यद्यपि इसका सूत्रपात पहले ही हो चुका था।

उड़ीसा के मंदिर स्थापत्य की विशेषताएं

भारतीय मंदिर स्थापत्य के इतिहास में उड़ीसा शैली की कुछ निजी विशेषताएं हैं जो क्षेत्रीय प्रभाव की द्वोतक है। इसकी बनावट तथा योजना में नवीनता है। प्रायः सभी मंदिर एक-मंजिला है। ऊँचे चबूतरे पर खड़े तथा परकोटे से घिरे हैं। इसके विभिन्न अंगों के अलग-अलग नाम है। संपूर्ण मंदिर को देवल अथवा विमान कहा जाता है। सामान्यतया देवल शब्द से शिखर का बोध होता है किंतु यहां देवालय के लिए यह प्रयुक्त किया गया है। देवल की योजना वर्गाकार है इसके समक्ष मंडप स्वरूप एक बड़ा कक्ष है जो जगमोहन के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें धार्मिक सभाओं का आयोजन किया जाता था। उड़ीसा के अधिकांश मंदिरों में मात्र देवल तथा जगमोहन की योजना ही दिखाई पड़ती है।

ज्यों-ज्यों यह शैली विकसित होती गई, आवश्यकतानुसार सभाकक्ष के सम्मुख अन्य कक्षों का समावेश किया गया - नटमंडप तथा भोगमण्डप। जैसे कि इसके नाम से बोध होता है, नटमंडप में नृत्य संगीत का आयोजन किया जाता था तथा भोगमंडप में इष्ट देव को नैवेद्य अर्पित किया जाता था।
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